प्रतिबिंब***प्रेरक कथायें By प्रेरणा सिंह

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आखिरी मुलाकात(लघुकथा)




आज सौम्य ने सुधा को पहली बार मिलने बुलाया था। वो लगभग रोज हीं मिल लेते थे, एक दूसरे  के घर के पास जो रह्ते थे। पर हर बार सुधा को हीं सौम्य की जरुरत होती थी।

उसका कोई काम हीं  नहीं हो पाता था बिना उसके सलाह के।


 आपस में घर वालों के अच्छे सम्बन्ध थे। सौम्य को सुधा के पापा सबसे भरोसे वाला समझते तो उसकी पढ़ाई या किसी बात के लिये वो उसी से मशवरा करते।


आज सुधा खोए हुए अतीत की बातों से मन- मस्तिस्क झकझोरते हुए सौम्य के घर की तरफ बढ़े जा रही थी। 

आज क्या बात होगी जो सौम्य ने बुलाया मिलने को!

 मन में हजारों सवालों और फिक्र लिये जब वो सौम्य के कमरे में पहुँची उसे ध्यान आया वो दुपट्टा भी लेना भूल गई।


सौम्य को देखते उसकी आँखे थोड़ी सी झुक गई!

सौम्य ने उसका हाथ थाम कुर्सी पे बैठाते हुए कहा - " मैं हीं हूँ  सुधा घबराओ मत। "


पर सुधा तो ठंडी पड़ चुकी थी। उसने सौम्य को ऐसे कभी नहीं देखा था।


वो तो अपनी हर परेशानी, समझ,सब कुछ कहने पूछने के लिये बचपन से हीं सौम्य के पास भागी आती और एक शिक्षक की तरह वो उसका मार्गदर्शन करता। 


आज सौम्य बदला हुआ सा था । वो सुधा के पास नीचे बैठते हुए बोला- " सुधा, कल मैं दिल्ली जा रहा हूँ। मेरी नौकरी लग गई है। मैं  यहाँ से चले भी जाना चाह्ता हूँ क्युंकि मुझमें तुम्हारी शादी देखने की हिम्मत नहीं है।


मैं चाह्ता तो ऐसे भी चला जाता पर बचपन से जिसे मैंने इतना अपना मान लिया कि उसे जागीर समझ बैठा हूँ, उसे ये बिना बताए चला जाऊँ तो जिन्दगी भर मन पर बोझ रहेगा।


सुधा घबरा के उठ खड़ी हुई। सौम्य रुका नहीं- " मैं जानता हूँ  मैं तुमसे प्यार करता हूँ पर शायद तुम ये अभी तक समझ नहीं पाई।

पर विदाई के वक़्त कँही ये एहसास तुम्हें अन्दर से खाली ना कर दे इसलिये तुमसे ये कहना जरुरी है। "


सुधा की आंखें भर गई। वो कपकपाते होंठो से बस इतना कह पाई - " बहुत देर कर दी आपने "।


अश्रुधारा से भिंगे सौम्य ने सुधा के आँसू अपनी उँगलियों में सहेज कहा- " मुझे लगा इस बार भी तुम आओगी मुझसे कहने अपनी परेशानी, पर ये बात समझने में देर लग गई कि प्रेम में ना बोले समझने की कला थी। 


मैं तुम्हारे समर्पण को ना समझ तुम्हें आंकता रहा लड़के की बात चला, शादी का दिन रख कर, सगाई कराकर। अंत तक इन्तजार किया कि तुम अब बोलोगी, अब कहोगी सौम्य मैं ये शादी नहीं कर सकती ।


मैं ये नहीं देख पाया की तुम वो सब कर रही थी जो मैं कह रहा था, यही तुम्हारा प्रेम था।"


सुधा फूट- फूट कर रो पड़ी। सौम्य ने उसका चेहरा थाम लिया - " सुधी ! मैंने 'हमें' हरा दिया। आज तुम बड़ी हो गई। आज तुम्हारे पास मैं आया हूँ, जाने के लिये। आज्ञा दो सुधा।


सुधा ने अपनी मेहंदी भरे हाथों से सौम्य के हाथों को थाम लिया- " आज बहुत बड़ा एहसान किया मुझपे ये बता कर , नहीं तो मैं जीवन भर इस अफसोस में रह्ती कि मेरा प्यार एकतरफ़ा था।"


फिर सुधा ने सौम्य के चरणों को स्पर्श कर सर पे लगाते हुए कहा-" आपका जाना हीं सही है, कल विदाई की बेला में मैं टूट कर कँही इस पवित्र प्यार को कलन्कित ना कर दूँ। मैं कभी बरदास्त नहीं कर पाऊँगी कि  सौम्य को लेकर जो दोनों परिवारों में विश्वास है वो टूटे। प्यार से भरा ये जो जीवन जिया है यही आगे हमदोनों को सम्भालेगा। मिलना हीं प्यार नहीं, उस प्यार को जीवनपर्यन्त संभाले रखना,उसकी गरिमा बनाए रखना भी प्यार है। "


सौम्य - " सुधा के सर पर हाथ रख कहता है - " तुमने मुझे मुक्ति दे दी। ये ' आखिरी मुलाकात ' जिन्दगी के अन्तिम छोड़ तक मुझे प्रेरणा देगी। "

(*यह कहानी लेखक द्वारा "आखिरी मुलाकात" पुस्तक के लिये लिखी गई है *)


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