बाहर टिप-टिप पानी बरस रहा था पर बिनोद की आंँखे अश्रुधारा से विमुख चिंता की अग्नि में सूख रहीं थीं।
तभी छोटे भाई ने आवाज़ लगाई-"भैया! चलो अमियाँ की बगिया तक घूम आए।"
आज बाबूजी की बरसी के बाद उनके कहे अनुसार खेतों का बंटवारा हो गया था।
छोटा भाई शहर रहता था शायद ज़मीन बेच लौट जाए!
उसका क्या होगा? अभी तक सारी ज़मीन पर वही फ़सल उपजा अपने परिवार का पेट भरता था। वही उसकी जीविकाआपूर्ति का साधन था।
छोटे भाई की आवाज़ से उसकी सोच टूटी-"भाई जी! याद है बचपन में बगीचे से जो हम आम तोड़ते हर बार आपसे ज़्यादा छीन कर मैं भाग जाता था।"
बाबू जी हमेशा आपको समझा दिया करते कि बड़े को त्याग करना पड़ता है, जाने दो और मैं हँस कर भाग जाया करता था।
शहर की ज़िंदगी में मैंने समझा त्याग क्या होता है! वहाँ हर व्यक्ति आगे बढ़ने की लालसा में अपने से छोटे को पीछे धकेल देता। आगे बढ़ने की होड़ में अपना पराया समझ पाना मुश्किल हो गया था मेरे लिए क्योंकि मैं तो प्यार- त्याग की छाँव में पनपा था।
तब मुझे आपका हर त्याग याद आता। मुझे आगे बढ़ाने के लिए ख़ुद आप दिन रात खेत में तपे।
उसने जमीन के कागज़ात भाई को थमाते हुए कहा आगे भी यहाँ सावन में अमिया ज़्यादा छीन के भाग सकूं, ये सावन आपके प्यार में भिंगो दे इसके लिए आप ये रख लिजिए भाई जी।
बिनोद का मन भर आया। आँखों में आँसू बचपन के सावन से भर आए। अमिया का स्वाद फिर से आ गया पर इस बार रसभरा। सावन इस बार रिश्तों में भीनी- भीनी ख़ुशबू भर गया।
*प्रेरणा सिंह*
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inspiring....
जवाब देंहटाएंप्रेरणादायक। अच्छा
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