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प्रतिबिंब***प्रेरक कथायें By प्रेरणा सिंह

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मैं से माँ

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सोचे चलूँ फिर पिछ्ले सफर पे, अपने स्वप्न के तरफ कदम बढ़ाए, खींचे साड़ी के कोण शिशु, आँचल में उसे छुपा स्वप्न फलित उसे हीं माने, मैं से माँ तक का सफ़र ये खोने-पाने के ना इसमें  मायने। मानस पटल पे कामों का घेरा, केंद्र बिंदू में  ममता का चेहरा। चाहे कभी जो स्वयं का सोंचूँ मैं, गोल घूम फिर वहीं पहुँच जाए। मैं से माँ तक का सफ़र धरती सा गोल बन जाए। इतनी उलझन जीवन नैयाँ में, सुलझाने को ईश्वर से गुहार लगाए। बच्चे पर जो परेशानी की आँच आए, ईश्वर का स्वरूप बन वो हर उलझन को सुलझाए। मैं से माँ के सफ़र में अद्वितीय रूप वो पाए।