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प्रतिबिंब***प्रेरक कथायें By प्रेरणा सिंह

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जंगल कि सीख(लघु कथा)

विनिता बैठे बैठे सोच रही थी शादी सोच समझ कर करनी चाहिए थी।वो छोटे परिवार में पली बढ़ी थी।वैसी ही आदत में भी था उसके।पर उसने खुद अपनी इच्छा से बड़े परिवार में शादी कि थी।वो जब भी अपनी दोस्त के घर जाती तो वहां उसके ताऊ ताई जी सबके बच्चे दादा दादी के बीच से उसे आने का मन ही नहीं होता था।कितना प्यार ,हंसना, बोलना, खेलने को इतने लोग।अपने घर में तो कभी कभी वो अकेले कमरे में बैठी रहती। दोस्त के घर कोई अकेलापन नहीं होता था।तभी से उसका मन था बड़े परिवार में शादी करूंगी। पर ये क्या! यहां वो उसि अकेलेपन को तरस जाती।उपर से बड़े जेठ अपने व्यापार में उसके पति के पैसे से अपनी संपत्ति बनाए जा रहे थे।रौनक बोलते मैं समझता हूं तुम्हारी बात।पर परिवार का मतलब यही होता है। छोटी बहन की शादी सर पर थी।सबकी नजरें भी मानो रौनक से ही सारी उम्मीदें लगाए बैठी थी। उफ्फ!अभी हम अलग रह रहे होते तो महल बना चुके होते।वो सोच ही रही थी कि रौनक आ गए।वो मुंह फेर लेती है।इस इंसान को कुछ भी समझाना बेकार है।रौनक समझ जाता है अनकही बातें।यही शायद इस रिश्ते की खूबसूरती थी। रौनक - प्यार से बोला "विनी चलो हम दो दिन के लि...

उठो चलो....

उठो चलो कि लहरे अभी बाकी है, आवाज से गहराई नापने को मन अभी साकी है। जी लो आज की कल किसने देखा है, मन में यादों की परत जमा लो कि एकांत में अकेलापन से झूझते बहुतों को देखा है।। चलो अपनी राह जन्हा हो मन की चाह, कि लोगों की बाते सुन बहुतों को हारते देखा है।। हंसो की धूल जाए हर गम सिकवा या शिकायत, की लोगों को बस कमियों को ही गिनते देखा है। बातों और साथ में खुशी समेटो, की पैसों के दिखावे में रिश्तों को रिश्ते देखा है।। उठो चलो कि लहरे अभी बाकी हैं, आवाज में गहराई नापने को मन अभी साकी है।।